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कन्हैया ! तू नहिं मोहि डरात / सूरदास

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राग सारंग

कन्हैया ! तू नहिं मोहि डरात । षटरस धरे छाँड़ि कत पर-घर चोरी करि-करि खात ॥ बकत-बकत तोसौं पचि हारी, नैकुहुँ लाज न आई । ब्रज-परगन-सिकदार, महर तू ताकी करत ननहई ॥ पूत सपूत भयौ कुल मेरैं, अब मैं जानी बात । सूर स्याम अब लौं तुहि बकस्यौ, तेरी जानी घात ॥

भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं- (माता ने डाँटा-)`कन्हैया ! तू मुझसे डरता नहीं है ? घर मै रखे छहों रस छोड़कर तू दूसरे घर चोरी करके क्यों खाता है | मैं तुझसे कहते-कहते प्रयत्न करके थक गयी; पर तुझे तनिक भी लज्जा नहीं आयी ? श्रीव्रजराज इस व्रज-परगने के सिक्केदार हैं (यहाँ उनका सिक्का चलता है ), तू उनकी हेठी करता है? मैंने अब यह बात जान ली कि मेरे कुल में तू बड़ा योग्य पुत्र जन्मा है । श्याम ! अब तक तो मैंने तुझे क्षमा कर दिया था, पर अब तेरे दाव समझ गयी हूँ ।'