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क्या हुआ जो / राहुल राजेश

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जब जागने का वक्त होता है
नींद आती है
हवादार ताजी सुबह बिस्तर के इर्दगिर्द
चहलकदमी करती है
सूरज खिड़की के भीतर कूदकर
तीखी किरणें चुभोता है
आँखों में अनिंद्रा की किरचें
कचमचाती हैं
घड़ी हड़बड़ करती भागती है
पाँवों में आलस लिपटा होता है
हरी-हरी घास पर डोलती ओस-बूँदों को
चूमने की हसरत पाँवों की
रोज बासी हो जाती है
चिड़ियों की चहचहाहट, फूलों की मस्ती
रोज छूट जाती है
रात-भर आवारा सपने सींग लड़ाते हैं
स्मृतियाँ पूरी रात करती हैं युद्धाभ्यास
मेरे अवचेतन के मैदान में
कि दिन में शिकार न हो मेरी आत्मा
इस महानगर की

कल अल्लसुबह जागूँगा पक्का
सोचकर रोज रात बिस्तर पर पड़ता हूँ
पर शायद सोने की रस्म-अदायगी पूरी नहीं हो पाती
दिन-भर की थकान से ज्यादा
दिल से रिस-रिसकर
आत्मा के कटोरे में जमा हुई ऊब
नींद निथरने नहीं देती
सारी नसीहतें धरी की धरी रह जाती हैं
साल-दर-साल निकल जाने पर भी
जिंदगी के सिलबट्टे पर
दुनियादारी का मसाला पीस नहीं पाता

सुबह-शाम सैर करने की तमीज अगर
आ भी जाए तो क्या गारंटी
नींद दौड़ी चली आए
नींद की गोली से नींद नहीं आती
चंद घंटों की बेहोशी आती है
बेहोशी में सपने नहीं आते
स्मृतियाँ नहीं आतीं
शुक्र है, मैं बेहोशी का शिकार नहीं हुआ
क्या हुआ जो
जब जागने का वक्त होता है
नींद आती है !