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मेरे जाने के बाद/ राहुल राजेश

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मेरे जाने के बाद कहीं कोई उदास नहीं होगा
सिवाय ख़ुद मेरे
जैसे किसी के आने जाने को लेते हैं
वैसे ही मेरे जाने को लेंगे सब लोग
ख़ुद मुझे भी इसी तरह लेना चाहिए
अपने जाने को

सब मुझे विदा करेंगे गर्मजोशी से
और लग जाएंगे अपने अपने कामों में

मैं सुबह-सुबह जागते ही जिस पेड़ को
देखता था खिड़की खोलकर
वह पेड़ मुझे याद नहीं करेगा
जिस पानी से अपनी प्यास बुझाता था
जिस पानी से मल-मल कर खूब नहाता था मैं
वह पानी नहीं याद करेगा
जो हवा दिन-रात मेरी सांसों को चलना सिखाती थी
वो हवा नहीं याद करेगी मुझे

मैं जिस घर को छोड़कर जाऊँगा
उस घर को भी नहीं याद आऊंगा मैं
जबकि इस घर को कभी नहीं भूल पाऊँगा मैं
इस घर में कई-कई रात मैं बेहद फूट-फूटकर
फफक-फफककर रोया हूँ
क्या कोई सुन पाएगा ?

जो कोई आएगा इस घर में मेरी जगह
क्या यह घर उसे बता पाएगा
किसकी प्रतीक्षा रही दिन-रात
इस घर में मुझे ?

क्या इस घर की छत को याद आएँगी
मेरी वो डबडब लाचार आँखें
जो रात-भर ताकती थीं उसे एकटक अकारण
इस घर की चौखट को क्या याद आएँगे मेरे वो पाँव
जो हरदम थके-थके से लौटते थे

क्या इस घर के दरवाजे को याद आएँगे मेरे वो हाथ
जो कुंडी में लगे ताले को खोलते हुए हमेशा काँप जाते थे
कि उफ! भीतर कितना सन्नाटा है ...

क्या उस सन्नाटे को भी नहीं याद आऊंगा मैं
जिसको चीरता था मैं पागलों की तरह बेतहाशा
पुकारकर उसे, जिसकी प्रतीक्षा में दिन-रात
सजाता-संवारता था यह घर

क्या हीरापुर की स्मृति में बचा रह जाऊँगा मैं
जबकि मेरी स्मृति में ताउम्र बचा रहेगा हीरापुर
हीरापुर में है जो भुवन संध्या

क्या इस शहर की सड़कों-गलियों को याद आएँगे
मेरे वो तेज या सुस्त कदम
जो कहीं भी चलते हुए बस एक ही जगह पहुँचना चाहते थे
क्या उस पराये दरवाजे को याद आऊँगा मैं
जहाँ से लौटते हुए मेरा कलेजा फटता था
और मेरे कदम होते थे सबसे भारी, सबसे बेजान

क्या उस प्यारी-सी बच्ची को कभी याद आऊँगा मैं
जिसे मैं बेटा कहता था और जो मुझे मोटू
क्या वो जान पाएगी कभी
पूरी उम्र उसे मैं अपने सीने से चिपकाए फिरूँगा
क्या कोई कभी जान पाएगा
पूरे जहान से भटककर लौटने के बाद यहीं मिली थी मुझे
पाँव भर ठौर, कतरा भर खुशी, कतरा भर जिंदगी
जो यहीं छूट जाएगी उम्र भर के लिए ...

मेरे जाने से कुछ नहीं बदलेगा
न मिट्टी न हवा न पानी
नहीं बदलेगी दुनिया रत्ती भर भी
पर मेरी दुनिया एकदम बदल जाएगी

मेरे जाने के बाद तुम थोड़ा रोओगी, उदास होओगी
फिर आखिर में खुश होओगी
कि मैं तरक्की पर जा रहा हूँ

और काम से लदफद जाओगी
जैसे पहले लदीफदी रहती थी

दफ्तर में मेरी कुर्सी कुछ दिन मेरी याद दिलाएगी
कुछ दिन मेरी देहगंध प्रेत की तरह मँडराएगी
कभी चाय, कभी पानी पीते, कभी कहीं आते-जाते
तुम्हें मेरी कोई आदत याद आएगी
मेरी छुअन, मेरी हँसी, मेरी उदासी, मेरी आँखें याद आएँगी

कुछ दिनों तक अनायास ही उठ जाएँगे
विदा में तुम्हारे हाथ
कि जैसे मैं अब भी खड़ा हूँ वहाँ उस खिड़की पर
रोज शाम तुम्हें विदा में हाथ हिलाते

अचानक किसी दिन बैग में, दराज में, किचन में, शेल्फ में
पूजाघर में, उस कमरे में, जो मेरा बेहद अपना था
कोई सिक्का, कोई डिबिया, कागज का कोई टुकड़ा
छू जाएगा तुम्हारी ऊँगलियों से
और तुम बरबस भींग जाओगी भीतर तक

फिर एक दिन सब कुछ झटककर कह उठोगी खुद से-
कैसी पगली हूँ न मैं
और उस दिन सबसे ज्यादा याद आऊँगा मैं ...


किसी रोज फोन करोगी, पूछोगी-
तुम खुश तो हो न ?
मैं कहूँगा- तुम ठीक से रहना
तुम्हारी चिंता बनी रहती है ...

मेरा क्या है, इतने बड़े शहर में
मुझे गुम होने में वक्त ही कितना लगेगा !