भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इस जंगल में / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:37, 14 जून 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरविन्द श्रीवास्तव |संग्रह=राजधा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
यह शहरी जंगल था
जहाँ चिड़ियों ने बसेरा लेना
छोड़ दिया था
जंगल आदमी का था और शब्द काँटे थे
भीड़ में स्पर्श का मतलब था
बबूल-सा तेवर झेलना
क्योंकि आदमी परखनली में जन्म ले रहा था
और प्लास्टिक भोजन का जायकेदार हिस्सा था
मजबूत बैंक-लॉकरों में फ्रिज कर दी गयी थी
कोमल भावनाएँ, संवेदनाएँ और मुलायमीयत
सड़कों पर जला-भुना आदमी
भभकती आग बन दौड़ा जा रहा था
किधर, पता नहीं
यहाँ फुफकारते थे वाहन
रोकने-टोकने का मतलब था
गर्म तवे पर हाथ रखना
इस जंगल में
इस जंगल में
शब्द खुखरी थे और
मुँह म्यान!