भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खोने को हैं बेताब( हाइकु) /रमा द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

    
१- ढोती है रात
मनुज की पीडाएं
भोर की आस |


२- मुखौटे लगा
खोने को हैं बेताब
चैटिंग – यार |


३- हैं अनजान
अडोस-पड़ोस से
सर्फिंग -प्यार |


४- ऊषा मुस्काई
भौंरे गुनगुनाए
ताजगी आई |


५- आँगन धूप
भागती फिर रही
छत-मुडेर |


६- आसमां झुक
धरा से कहता ये
तुझ से ही मैं |