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हाइकु 3 / सुभाष नीरव
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(1)
मन में कुछ
होंठों पर कुछ, है
छल- प्रपंच।
(2)
बीज जो बोये
घृणा के तब, प्रेम
कहाँ से होये।
(3)
खोजा बाहर
था अपने अन्दर
कस्तूरी सम।
(4)
दु:ख में तुम
इस तरह मिले
ज्यूँ रब मिले।
(5)
ओस की बूंदें
खूब रोया रात में
आकाश जैसे।
(6)
जग है सूना
प्रियतम के बिन
दु:ख है दूना।