भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सपनों की उधेड़बुन / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:26, 16 जुलाई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओम पुरोहित ‘कागद’ |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पन्ना बनाया)
एक-एक कर
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही ख़यालों में
मान कर अपने !
सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आँख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतज़ार
सपनों वाली रात का
इसलिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया ज़ोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !
अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आँख
और
सपनों की उधेड़बुन से !