Last modified on 16 जुलाई 2012, at 23:06

एक मामूली औरत / वर्तिका नन्दा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:06, 16 जुलाई 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आँखों के छोर से
पता भी नहीं चलता
कब आँसू टपक आता है और तुम कहते हो
मैं सपने देखूँ ।

तुम देख आए तारे ज़मी पे
तो तुम्हें लगा कि सपने
यूँ ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं ।

नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने ।

मैं औरत हूँ
अकेली हूँ
पत्रकार हूँ ।

मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूँ
पर अपने कमरे के शीशे के सामने
मेरा जो सच है,
वह सिर्फ मुझे ही दिखता है
और उसी सच में, सच कहूँ,
सपने कहीं नहीं होते ।

तुमसे बरसों मैनें यही माँगा था
मुझे औरत बनाना, आँसू नहीं
तब मैं कहाँ जानती थी
दोनों एक ही हैं ।

बस, अब मुझे मत कहो
कि मैं देखूँ सपने
मैं अकेली ही ठीक हूँ
अधूरी, हवा-सी भटकती ।

पर तुम यह सब नहीं समझोगे
समझ भी नहीं सकते
क्योंकि तुम औरत नहीं हो
तुमने औरत के गर्म आँसू की छलक
अपनी हथेली पर रखी ही कहाँ ?

अब रहने दो
रहने दो कुछ भी कहना
बस मुझे ख़ुद में छलकने दो
और अधूरा ही रहने दो ।