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क्रान्ति-पथे / अज्ञेय
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तोड़ो मृदुल वल्लकी के ये सिसक-सिसक रोते-से तार,
दूर करो संगीत-कुंज से कृत्रिम फूलों का शृंगार!
भूलो कोमल, स्फीत स्नेह स्वर, भूलो क्रीडा का व्यापार,
हृदय-पटल से आज मिटा दो स्मृतियों का अभिनव संसार!
भैरव शंखनाद की गूँजें फिर-फिर वीरोचित ललकार,
मुरझाये हृदयों में फिर से उठे गगन-भेदी हुंकार!
धधक उठे अन्तस्तल में फिर क्रान्ति-गीतिका की झंकार-
विह्वल, विकल, विवश, पागल हो नाच उठे उन्मद संसार!
दीप्त हो उठे उरस्थली में आशा की ज्वाला साकार,
नस-नस में उद्दंड हो उठे नवयौवन रस का संचार!
तोड़ो वाद्य, छोड़ दो गायन, तज दो सकरुण हाहाकार,
आगे है अब युद्धक्षेत्र-फिर, उस के आगे-कारागार!
दिल्ली जेल, 18 फरवरी, 1932