राग आसावरी
खेलत नंद-आंगन गोविन्द।
निरखि निरखि जसुमति सुख पावति बदन मनोहर चंद॥
कटि किंकिनी, कंठमनि की द्युति, लट मुकुता भरि माल।
परम सुदेस कंठ के हरि नख,बिच बिच बज्र प्रवाल॥
करनि पहुंचियां, पग पैजनिया, रज-रंजित पटपीत।
घुटुरनि चलत अजिर में बिहरत मुखमंडित नवनीत॥
सूर विचित्र कान्ह की बानिक, कहति नहीं बनि आवै।
बालदसा अवलोकि सकल मुनि जोग बिरति बिसरावै॥
शब्दार्थ :- किंकिनी =करधनी। लट =अलक। मुकुता भरि = मोतियों से गुही हुई। सुदेस =सुंदर। केहरि नख =बघनखा, बाघ के नख, जो बच्चों के गले में सोने से मढ़कर पहना दिये जाते हैं। बज्र =हीरा। प्रवाल = मूंगा। रज-रंजित =धूल से सना हुआ। अजिर = आंगन। मुख-मंडित नवनीत =मुंह मक्खन से सना हुआ है। बानिक= शोभा।