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प्रस्थान / अज्ञेय

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 रण-क्षेत्र जाने से पहले सैनिक! जी भर रो लो!
अन्तर की कातरता को आँखों के जल से धो लो!
मत ले जाओ साथ जली पीड़ा की सूनी साँसें,
मत पैरों का बोझ बढ़ाओ ले कर दबी उसाँसें।

वहाँ? वहाँ पर केवल तुम को लड़-लड़ मरना होगा,
गिरते भी औरों के पथ से हट कर पडऩा होगा।
नहीं मिलेगा समय वहाँ यादें जीवित करने को,
नहीं निमिष-भर भी पाओगे हृदय दीप्त करने को।

एक लपेट-धधकती ज्वाला-धूमकेतु फिर काला,
शोणित, स्वेद, कीच से भर जाएगा जीवन-प्याला!
अभी, अभी पावन बूँदों से हृदय-पटल को धो लो-
तोड़ो सेतुबन्ध आँखों के, सैनिक! जी भर रो लो!

दिल्ली जेल, 23 अप्रैल, 1932