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विश्वास / अज्ञेय
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तुम्हारा यह उद्धत विद्रोही
घिरा हुआ है जग से पर है सदा अलग, निर्मोही!
जीवन-सागर हहर-हहर कर उसे लीलने आता दुर्धर
पर वह बढ़ता ही जाएगा लहरों पर आरोही!
जगती का अविरल कोलाहल कर न सकेगा उस को बेकल
ओ आलोक! नयन उस के अनिमिष लखते तुम को ही।
कैसे खोएगा वह पथ को तुम्हीं एक जब पथ-दर्शक हो
एक साँकरा मग है, और अकेला एक बटोही!
तुम्हारा यह उद्धत विद्रोही!
लाहौर, 8 मई, 1935