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रहस्यवाद / अज्ञेय

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 (1)

मैं भी एक प्रवाह में हूँ-
लेकिन मेरा रहस्यवाद ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं है,
मैं उस असीम शक्ति से सम्बन्ध जोडऩा चाहता हूँ-
अभिभूत होना चाहता हूँ-

जो मेरे भीतर है।
शक्ति असीम है, मैं शक्ति का एक अणु हूँ,
मैं भी असीम हूँ।
एक असीम बूँद असीम समुद्र को अपने भीतर प्रतिबिम्बित करती है,

एक असीम अणु इस असीम शक्ति को जो उसे प्रेरित करती है
अपने भीतर समा लेना चाहता है,
उस की रहस्यामयता का परदा खोल कर उस में मिल जाना चाहता है-
यही मेरा रहस्यवाद है।

(2)

लेकिन जान लेना तो अलग हो जाना है, बिना विभेद के ज्ञान कहाँ है?
और मिलना है भूल जाना,
जिज्ञासा की झिल्ली को फाड़ कर स्वीकृति के रस में डूब जाना,
जान लेने की इच्छा को भी मिटा देना,
मेरी माँग स्वयं अपना खंडन है क्योंकि वह माँग है,
दान नहीं है।

(3)

असीम का नंगापन ही सीमा है :
रहस्यमयता वह आवरण है जिस से ढँक कर हम उसे
असीम बना देते हैं।
ज्ञान कहता है कि जो आवृत है, उस से मिलन नहीं हो सकता,
यद्यपि मिलन अनुभूति का क्षेत्र है,

अनुभूति कहती है कि जो नंगा है वह सुन्दर नहीं है,
यद्यपि सौन्दर्य-बोध ज्ञान का क्षेत्र है।
मैं इस पहेली को हल नहीं कर पाया हूँ, यद्यपि मैं रहस्यवादी हूँ,
क्या इसीलिए मैं केवल एक अणु हूँ
और जो मेरे आगे है वह एक असीम?

आगरा, 17 जनवरी, 1937