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निवेदन / अज्ञेय
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मैं जो अपने जीवन के क्षण-क्षण के लिए लड़ा हूँ,
अपने हक के लिए विधाता से भी उलझ पड़ा हूँ,
सहसा शिथिल पड़ गया है आक्रोश हृदय का मेरे-
आज शान्त हो तेरे आगे छाती खोल खड़ा हूँ।
मुझे घेरता ही आया है यह माया का जाला,
मुझे बाँधती ही आयी है इच्छाओं की ज्वाला;
मेरे कर का खड्ग मुझी से स्पर्धा करता आया-
साधन आज मुक्ति का हो तेरे कर की वनमाला!
मर्म दुख रहा है, पर पीड़ा तो है सखी पुरानी,
व्यथा-भार से नहीं झुका है यह अन्तर अभिमानी;
आज चाहता हूँ कि मौन ही रहे निवेदन मेरा-
स्वस्ति-वचन में ही हो जावे मेरी पूर्ण कहानी!
1937