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रक्तस्नात वह मेरा साकी / अज्ञेय

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मैं ने कहा, कंठ सूखा है दे दे मुझे सुरा का प्याला।
मैं भी पी कर आज देख लूँ यह मेरी अंगूरी हाला।
-एक हाथ में सुरापात्र ले एक हाथ से घूँघट थामे
नीरव पग धरती, कम्पित-सी बढ़ी चली आयी मधुबाला।

मैंने कहा, कंठ सूखा है किन्तु नयन भी तो हैं प्यासे।
एक माँग मधुशाला से है किन्तु दूसरी मधुबाला से!
ग्रीवा तनिक झुका कर, भर-भर आँखों से दो जाम उँड़ेलो-
प्यास अगर मिट सकती है तो उस चितवन की तीव्र सुरा से!

बाला बोली नहीं, न उस ने अवगुंठन से हाथ हटाया-
एक मूक इंगित से केवल प्याला मेरी ओर बढ़ाया;
मानो कहा, 'यही है मेरी मीठी कल्प-सुरा की गगरी-
इस में झाँको, देख सकोगे, मेरी रूप-शिखा की छाया!'

मैं बोला, अच्छा, ऐसे ही सही, अनोखे मेरे सा की,
मेरी साध यही है, रह जावे अरमान न मेरा बा की-
प्याले में तेरी आँखों की मस्त खुमारी भरी हुई है-
एक जाम में मिट जावेगी प्यास कंठ की, प्यास हिया की!

मैं ने थाम लिया तब प्याला आतुरता से हाथ बढ़ा कर
लगा देखने अपनी प्यासी आँखें उस के बीच गड़ा कर :
पुलक उठा मेरा तन दर्शन के पहले ही उत्कंठा से-
और अधर मधुबाला के भी खुले तनिक शायद मुसका कर!

मैं ने देखा, एक लजीले बादल का-सा मृदु अवगुंठन-
उस के पीछे-उ फ, कितनी अनगिन मधुबालाओं का नर्तन!
मैं ने देखा-मैं ने देखा-इन्हीं दग्ध आँखों से देखा!-
इस तीखी उन्माद ज्वाल के कण-कण में जीवन का स्पन्दन!

मैं ने देखा, केवल अपने रूखे केशों से अवगुंठित
वहाँ करोड़ों मधुबालाएँ खड़ीं विवसना और अकुंठित
द्राक्षा के कुचले गुच्छे-सी मर्माहत वे झुकी हुई थीं-
और रक्त उन के हृदयों का होता एक कुंड में संचित!

मैं ने देखा, वहाँ करोड़ों भभकों में फिर उफन-उफन कर
भस्मीभूत अस्थियों के अनगिन स्तर की छननी में छन कर
एक मनमोहक उन्मादक झिलमिल निर्झर रूप ग्रहण कर
वही रक्त बढ़ता आता था मेरी मोहन मदिरा बन कर!
मैं ने देखा, हुआ नयनमय उस लालिम मदिरा का कण-कण

मेरे कानों में सहसा भर गया एक प्रलंयकर गर्जन-
प्यास कंठ की? प्यास हिया की? ले लो झाँकी आज प्रिया की-
कल्प-सुरा छलकी आती है इन अनगिन नयनों में इस क्षण!
मैं ने देखा, वहाँ करोड़ों आँखों में उत्तप्त व्यथा है,

मैं ने सुना, कहो, कैसी मधुबाला की मधुमयी कथा है?
अट्टहास में उस, विद्रूप भरा था कितना उग्र, भयानक-
क्यों? कड़वी है? क्या इलाज इस का जब सा की ही विधवा है!
तड़प उठा मैं, चीख उठा अब मेरा, हा! निस्तार कहाँ है?

मेरे हित कलंक की कालिख का बस अब गुरु भार यहाँ है!
फट जा आज, धरित्री! मेरी दु:सह लज्जा आज मिटा दे-
रक्तस्नात वह मेरा सा की मेरी दुखिया भारत माँ है!

कलकत्ता, 2 नवम्बर, 1937