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कृत-बोध / अज्ञेय

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तीन दिन बदली के गये, आज सहसा
खुल-सी गयी हैं दो पहाड़ों की श्रेणियाँ
और बीच के अबाध अन्तराल में, शुभ्र, धौत
मानो स्फुट अधरों के बीच से प्रकृति के

बिखर गया हो कल-हास्य एक क्रीड़ा-लोल अमित लहर-सा-
लाँघ कर मानस का शून्य तम
नि:सृत हुआ है द्युत तेरे प्रति मेरे कृत-बोध का प्रकाश-
चेतना की मेखला-सी जीवनानुभूति की पहाडिय़ों के बीच मेरी,

विनत कृतज्ञता
फैल गयी खुले आकाश-सी।

शिलङ्, 7 अगस्त, 1943