प्रिया के हित गीत / अज्ञेय
दृश्य लख कर प्राण बोले : 'गीत लिख दे प्रिया के हित!'
समर्थन में पुलक बोली : 'प्रिया तो सम-भागिनी है
साथ तेरे दुखित-नन्दित!'
लगा गढऩे शब्द।
सहसा वायु का झोंका तुनक कर बोला, 'प्रिया मुझ में नहीं है?'
नदी की द्रुत लहर ने टोका-
'किरण-द्रव मेरे हृदय में स्मित उसी की बस रही है।'
शरद की बदली इकहरी, शिथिल अँगड़ाई
भर, तनिक-सी और झुक आयी :
'नहीं क्या उस की लुनाई इस लचीली मसृण-मृदु
आकार रेखा में बही है?'
सिहर कर तरु-पात भी बोले वनाली के,
आक्षितिज उन्मुक्त लहरे खेत शाली के-
आत्म-लय के, बोध के, इस परम रस से पार
ग्रन्धि मानो रूप की, स्वावलम्ब, बिन आधार,
अलग प्रिय, एकान्त कुछ, कोई कहीं है?
प्रिय तो है भावना, वह है, यहीं है, रे, यहीं है!
रह गया मैं मौन, अवनत-माथ
एकलय उन सबों से, उस दृश्य से अभिभूत,
प्रिये, तुझ को भूल कर एकान्त, अन्त:पूत,
क्यों कि एक प्राण तेरे साथ!
डिब्रूगढ़, 21 जनवरी, 1945