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एक दर्शन / अज्ञेय
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माँगा नहीं, यदपि पहचाना,
पाया कभी न, केवल जाना-परिचिति को अपनापा माना।
दीवाना ही सही, कठिन है अपना तर्क तुम्हें समझाना-
इह मेरा है पूर्ण, तदुत्तर परलोकों का कौन ठिकाना!
शिलङ्, 8 फरवरी, 1945