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देखती है दीठ / अज्ञेय
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हँस रही है वधू-जीवन तृप्तिमय है।
प्रिय-वदन अनुरक्त-यह उस की विजय है।
गेह है, गति, गीत है, लय है, प्रणय है :
सभी कुछ है।
देखती है दीठ-
लता टूटी, कुरमुराता मूल में है सूक्ष्म भय का कीट!
शिलङ्, 15 नवम्बर, 1945