मेरी हार / प्रेम कुमार "सागर"
कंधे पर मेरे आज कैसा भार है ?
बेताल उस अतीत का
क्या आज जिन्दा हो चला; कुछ खो चला
मै आज फिर-फिर|
दो तारिकाएँ क्योँ बुझी सी टिमटिमाती
सूज चुकी शशांक की ज्यों टोह में;
रक्ताक्ष से होकर ओझल नभराज भी
अर्ज करता पयधरो से
आ रहा जो आज घिर-घिर;
अश्क का अब क्या रहा अभिसार है ?
कंधे पर मेरे आज कैसा भार है ?
राजसी कपड़ो में लिपटी लाश एक
जलजले में हो डूबी ज्यूँ प्यास एक;
हो गयी है जिंदगी
गजराज की, रणराज की|
क्यूँ खो गया उसका महावत भीड़ में
क्यूँ सो गया
एक बाज नीरवत नीड़ में?
क्यूँ बंध गया? शत-शत उसे धिक्कार है?
कंधे पर मेरे आज कैसा भार है ?
एक पुष्प था जिसपर न्योछावर था भ्रमर
अधिकार पर उसको बड़ा अभिमान था,
नादान था; शैतान था काँटा
सुरक्षा में खडा, जिद पर अड़ा, अक्खड़ बड़ा;
एक जंग थी असम-विषम
औ' हारना भ्रमर को था;
गुमान बस समर को था,
उसको मिलेगा तप्त-शोणित|
लथपथ-स्वाहत-अभागे का प्रश्न एक
क्या जिंदगी में शाश्वत बस हार है ?
कंधे पर मेरे आज कैसा भार है ?