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मिलन-सौगात / प्रेम कुमार "सागर"

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मै हरदम रोशन रहता हूँ, भले ही रात होती है
मेरी हर शाम दो-दो जुगनूओं से बात होती है

दिल की दीवारों पर मै उसका नाम लिखता हूँ
हाथों में, जब, आसूँ भरी दवात होती है

जहान क्यूँ कहता है कि प्रेमी मिल नहीं पाते
क्षितिज पर आस्मां-धरती की मुलाकात होती है

ये तो हौसलों का सबब है कि पूल बन बैठा
वर्ना कहाँ यह तट-मिलन-सौगात होती है

अजब है चाल मोहरों का, फँसा राजा विसात पर
मयस्सर जीत क्या होगी, यहाँ तो मात होती है

खुद को हारकर खुश हूँ, मै होता जीतकर तन्हा
लगन के खेल में ही ऐसी करामात होती है

कभी भी मेघ रुकते है नहीं बंजर जमीन पर
भरे 'सागर' में देखो नित्त नयी बरसात होती है