Last modified on 3 अक्टूबर 2007, at 11:36

उड़ गए बालो-पर उड़ानों में... / देवी नांगरानी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:36, 3 अक्टूबर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवी नांगरानी |संग्रह= }} Category:ग़ज़ल उड़ गए बालो-पर उड़ा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उड़ गए बालो-पर उड़ानों में

सर पटकते हैं आशियानों में ।


जल उठेंगे चराग़ पल-भर में

शिद्दतें चाहिएँ तरानों में ।


नज़रे बाज़ार हो गए रिश्ते

घर बदलने लगे दुकानों में ।


धर्म के नाम पर हुआ पाखंड

लोग जीते हैं किन गुमानों में ।


कट गए बालो-पर, मगर हमने

नक्श छोड़े हैं आसमानों में ।


वलवले सो गए जवानी के

जोश बाक़ी नहीं जवानों में ।


बढ़ गए स्वार्थ इस क़दर 'देवी'

घर बँट गया कई घरानों में ।