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जिनके हक़ को रोशनी दरकार है / कुमार अनुपम

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वे देर रात तक खेलते रहते हैं
कैरम लूडो या सोलहगोटी
अधिकतम एकसाथ रहने की जुगत करते हैं
जबकि दूकानें उनकी जागती रहती हैं

वे मुड़-मुड़कर देखते हैं बार-बार
अँधेरे में से गुज़रती एक-एक परछाईं
अपनी आश्वस्ति पर सन्देह करते हैं

एक खटका उन्हें लगा रहता है
पुलिस सायरन से भी
जिससे महसूस करना चाहिए निशाख़ातिर
उससे दहल जाता है उनका कलेजा

एक-दूसरे को समझाते हैं कि हम लोकतन्त्र में हैं
यह हमारा ही देश है
और हम इसके नागरिक

लेकिन तीसरा अचानक
बुदबुदाने लगता है वे जवाब
जिस पर उसे यातनाएँ दी गई थीं
पुलिसिया बेहूदा सवालों की ऐवज
जब वह यही सब बोला था तफ़्तीश में और तब से
वह साफ़-साफ़ बोलने के क़ाबिल भी नहीं रहा

दाढ़ी ही तो रखते हैं पहनते हैं टोपी
पाँचों वक़्त पढ़ते हैं नमाज़
यह ज़ुर्म तो नहीं है हुज़ूर
चीख़ती है उनकी ख़ामोशी
जिसे नहीं सुनती है कोई भी कोर्ट

हम आतंकवादी नहीं हैं जनाब
मेहनतकश हैं
दुरुस्त करते हैं घडि़याँ, सिलते हैं कपड़े
बुनते हैं चादर, पालते हैं बकरियाँ
आपके लिए सब्ज़ियाँ उगाते हैं

हम गोश्त नहीं हैं आपकी दस्तरख़ान में सजे हुए
हमें ऐसे मत देखिए
लेकिन मिन्नतें उनकी
बार-बार साबित कर दी जाती हैं
एक ख़ास क़ौम का ज़ुर्माना इरादतन

उन्हें जेलें नसीब होती हैं या एनकाउंटर

बचे रहने की ज़िद में वह क्या है
जो उन्हें कट्टर बनाता है

कभी सोचिए कि
दरगाहों के लिए
जिनकी आमदनी से निकलती है चिराग़ी
मोअज्जिन की सदाओं से खुलते
जिन ख़ुदाबंद पलकों के दर
उनके गिर्द
क्यों लगे हैं मायूसी के स्याह सियासी जाले

उनके ख़्वाब में भला किस देश का पल सकता है भविष्य

इसे सवाल नहीं
मुस्तकबिल की सचाई की तरह सुनें !

सिर्फ़ रात होने से ही नहीं घिरते हैं अँधेरे

उनके हक़ को रोशनी दरकार है
जिनकी दरूद-सीझी फूँक से
उतर जाती है हमारे बच्चे को लगी
दुनिया की तीख़ी से तीख़ी नज़र ।