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क्षण भर पहले ही आ जाते / अज्ञेय

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 क्षण-भर पहले ही आ जाते!
प्राण-सुधा को क्या तुम सब ऐसी बिखरी ही पाते!
भरी-भरी आँखों के प्यासे-प्यासे सूने आँसू...
नहीं तुम्हारे ही चरणों क्या लोट-लोट लुट जाते!
हाय तुम्हारे पथ में आँखें अनझिप बिछ-बिछ जातीं-
आँसू उड़-उड़ कर समीर से परिमल-से छा जाते!
उर में होता क्यों अवसाद? सिसकती अगणित आहें!
तब तो मेरे प्राण प्राण-भर अपने में न समाते!
आज लग रहा क्षण-क्षण युग-सा, पर यदि-यदि कुछ होता,
इस क्षण में ही कितने युग-युग, हाय, क्षणिक हो जाते!
देखे हैं क्या कभी शिशिर के सूखे पत्ते-
मधु में मधु के एक घूँट के लिए तरसते?
विफल प्रतीक्षा में ही उनके सुलग रहे होते हैं प्राण,
क्षण-भर-फिर एकाएकी हो जाता उन का जीवन-त्राण!
फिर यदि झोंका आया- क्या आया!
मलय-समीरण लाया- क्या लाया!
जीवन की असफलता का है वह निर्णायक-
वही एक क्षण उन का भाग्य-विधायक!
क्षण-भर पहले- चरणों में आ कर मरते हैं-
क्षण-भर पीछे- चरणों में मर कर गिरते हैं!
उसे सोच लो, मुझे देख लो, और मौन रह जाओ-
यह मत पूछो क्षण-भर पहले तुम मुझ को क्या पाते!
क्षण-भर पहले ही आ जाते!

मुलतान जेल, 20 नवम्बर, 1933