दीप बुझ चुका, दीपन की स्मृति शून्य जगत् में छुट जाएगी;
टूटे वीणा-तार, पवन में कम्पन-लय भी लुट जाएगी;
मधुर सुमन-सौरभ लहरें भी होंगी मूक भूत के सपने-
कौन जगाएगा तब यह स्मृति- कभी रहे तुम मेरे अपने?
तारा-कम्पन? नित्य-नित्य वह दिन होते ही खो जाता है-
सलिला का कलरव भी सागर-तट पर नीरव हो जाता है;
पुष्प, समीरण, जीवन-निधियाँ- तुम में उलझेंगी क्यों सब ये-
भूले हुए किसी की कसक जगा कर दीप्त करेंगी कब ये!
पर, ऐसे भी दिन होंगे जब स्मृति भी मूक हो चुकी होगी?
जब स्मृति की पीड़ा भी अपना अन्तिम अश्रु रो चुकी होगी?
उर में कर सूने का अनुभव, किसी व्यथा से आहत हो कर-
मैं सोचूँगा, कब, कैसे किसने बोया था इस का अंकुर!
और नहीं पाऊँगा उत्तर-
हाय, नहीं पाऊँगा उत्तर!
डलहौजी, 18 अगस्त, 1934