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इस परित्यक्त केंचुल की ओर / अज्ञेय

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 इस परित्यक्त केंचुल की ओर घूम-घूम कर मत देखो। यह अब तुम्हारा शरीर नहीं है।
अपने नये शरीर में चेतनामय स्फूर्ति के स्पन्दन का अनुभव करो, शिराओं में उत्तप्त रक्त की ध्वनि सुनो, अपनी आकृति में अभिमान-पूर्ण पौरुष को देखो! यह सब पा कर भी क्या तुम उस निर्जीव लोथ से, जिस का तुमने परित्याग कर दिया है, अपने मन को नहीं हटा सकते?
अपने विध्वस्त निवास का अब ध्यान मत करो!
नैसर्गिक कृति के विशाल प्रस्तार को देखो, शीतल पवन की तीक्ष्ण मनुहार का अनुभव करो, उन्मत्त गजराज की तरह बढ़ते हुए जल-प्रपातों का रव सुनो, और रस में अपना नया वासस्थान पहचानो!
अपने पुराने विध्वस्त निवास के निरर्थक भग्नखंडों की ओर इस लालसा-पूर्ण दृष्टि से मत देखो!

दिल्ली जेल, 21 नवम्बर, 1932