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मेरे आगे तुम ऐसी खड़ी / अज्ञेय

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मेरे आगे तुम ऐसी खड़ी हो मानो विद्युत्कणों का एक पुंज साकार हो कर खड़ा हो। तुम वास्तविक होती हुई भी सात्त्विक नहीं जान पड़तीं-क्योंकि तुम में स्थायित्व नहीं है।
फिर भी, मेरे अन्दर कोई शक्ति तुम्हारी ओर आकृष्ट होती है और तुम्हें सामने देख कर, तुम से सान्निध्य का अनुभव न करते हुए, तुम्हें न जानते हुए भी, मेरे अन्त:सागर में उथल-पुथल मचा देती है!

दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932