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मैं तारों का एक घर / सविता सिंह
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न जाने कितने तारे
मेरी आँखों मे आ-आ कर ध्वस्त होते जा रहे हैं
उनकी तेज़ रोशनी
गहन उष्मा उनकी
आकर मेरी आँखों में बुझती रही है
और मैं इन तारों का
एक विशाल दीप्त घर बन गई हूँ
जिसमें मनुष्यों की भाँति ये मरने आते हैं
आज भी हर रात
एक तारा उतरता है मुझमें
हर रात उतना ही प्रकाश मरता है
उतनी ही उष्मा चली जाती है कहीं...