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डर / सविता सिंह
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साँय-साँय चल रही है हवा इस दोपहर
जाने किस ख़ालीपन की तरफ़ बढ़ रही है
क्या कुछ विस्थापित कर डालेगी
क्या कुछ करेगी पार
किसके वजूद पर जा बैठेगी
किसे बैचेन कर डालेगी आज
साँय-साँय चल रही है हवा
लिए उद्विग्नता दोपहर की
और चुप्पी किसी रोते मन की
अधलेटी अपने अन्दर के एकान्त में
डरती सोचती हूँ
कहीं भर न दे मुझे यह अपने वेग से