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रजनी ऊषा में हुई मूक / अज्ञेय
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रजनी ऊषा में हुई मूक कुछ रो-रो कर, कुछ काँप-काँप;
इस असह ज्योति से बचने को मैं ने मुख अपना लिया ढाँप!
याचना मात्र से कैसे निधि पा लेगा जो था सदा क्षुद्र?
युग-युग की प्यासी हो कर भी धूली क्या पी लेगी समुद्र!
मैं झुकूँ, डुबाते बह जाओ ओ मेरे ही दुर्धर प्रवाह-
हे अतुल! सोख लो अपने में मेरे उर का खद्योत दाह!
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