भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रजनी ऊषा में हुई मूक / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:41, 4 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=चिन्ता / अज्ञेय }} {{KKC...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 रजनी ऊषा में हुई मूक कुछ रो-रो कर, कुछ काँप-काँप;
इस असह ज्योति से बचने को मैं ने मुख अपना लिया ढाँप!
याचना मात्र से कैसे निधि पा लेगा जो था सदा क्षुद्र?
युग-युग की प्यासी हो कर भी धूली क्या पी लेगी समुद्र!

मैं झुकूँ, डुबाते बह जाओ ओ मेरे ही दुर्धर प्रवाह-
हे अतुल! सोख लो अपने में मेरे उर का खद्योत दाह!

1935