भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बार-बार रौरव जग का / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:43, 4 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=चिन्ता / अज्ञेय }} {{KKC...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 बार-बार रौरव जग का मेरा आह्वान किया करता है :
मेरी अन्तज्र्योति बुझा देने को तम से नभ भरता है।
पर प्रियतम! जिन प्राणों पर पड़ चुकी कभी भी तेरी छाया-
उन्हें खींच लेने की शक्ति कहाँ से लावे उसकी माया!

नीरव उर-मन्दिर में यह मन तेरा ध्यान किया करता है-
यदपि सदा रौरव जग का मेरा आह्वान किया करता है।

1935