भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रुकेंगे तो मरेंगे / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:06, 4 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=शरणार्थी / अज्ञेय }}...' के साथ नया पन्ना बनाया)
सोचने से बचते रहे थे, अब आयी अनुशोचना।
रूढिय़ों से सरे नहीं (अटल रहे तभी तो होगी वह मरजाद!)
अब अनुसरेंगे-नाक में नकेल डाल जो भी खींच ले चलेगा
उसी को! चलो, चलो, चाहे कहीं चलो, बस बहने दो :
व्यवस्था के, शान्ति, आत्मगौरव के, धीरज के
ढूह सब ढहने दो-बुद्धि जब जड़ हो तो
मांस-पेशियों की तड़पन को
जीवन की धड़कन मान लें-
(जब घोर जाड़े में
कम्बल का सम्बल न होता पास
तब हम जबड़े की किटकिट ही से बाँधते हैं आस
कुछ गरमाई की!)
भागो, भागो, चाहे जिस ओर भागो
अपना नहीं है कोई, गति ही सहारा यहाँ-
रुकेंगे तो मरेंगे!
इलाहाबाद, 24 अक्टूबर, 1947