मैं ने कहा, डूब चाँद!
रात को सिहरने दे, कुइँयों को मरने दे,
आक्षितिज तम फैल जाने दे।
-पर तम थमा और मुझ ही में जम गया।
मैं ने कहा-उठ रही लजीजी भोर-रश्मि, सोयी
दुनिया में तुझे कोई देखे मत, मेरे भीतर समा जा तू,
चुपके से मेरी यह हिमाहत नलिनी खिला जा तू।
-वो प्रगल्भा मानमयी
बावली-सी उठ सारी दुनिया में फैल गयी।
दिल्ली, 23 अक्टूबर, 1953