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तुम कदाचित न भी जानो / अज्ञेय

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तुम कदाचित् न भी जानो
मंजरी की गन्ध भारी हो गयी है
अलस है गुंजार भौंरे की-अलस और उदास।
क्लान्त पिक रह-रह तड़प कर कूकता है। जा रहा मधु-मास।
मुस्कराते रूप!
तुम कदाचित् न भी जानो-यह विदा है।

ओस-मधुकण : वस्त्र सारे सीझ कर श्लथ हो गये हैं।
रात के सहमे चिहुँकते बाल-खग अब निडर हो चुप हो गये हैं।
अटपटी लाली उषा की हुई प्रगल्भ, विभोर।
उमड़ती है लौ दिये की जा रहा है भोर।
ओ विहँसते रूप!
तुम कदाचित् न भी जानो-यह विदा है।

दिसम्बर, 1954