भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूर्यास्त / इन्द्र-धनु रौंदे हुए थे / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:13, 8 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=इन्द्र-धनु रौंदे ह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
धूप
माँ की हँसी के प्रतिबिम्ब-सी शिशु-वदन पर-
हुई भासित
नये चीड़ों से कँटीली पार की गिरि-शृंखला पर :
रीति :
मन पर वेदना के बिना,
तर्कातीत, बस स्वीकार से ही सिहर कर
बोला :
'नहीं, फिर आना नहीं होगा।'
सिग्तुना (स्वीडन), 24 जून, 1955