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सूर्यास्त / इन्द्र-धनु रौंदे हुए थे / अज्ञेय

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धूप
माँ की हँसी के प्रतिबिम्ब-सी शिशु-वदन पर-
हुई भासित

नये चीड़ों से कँटीली पार की गिरि-शृंखला पर :
रीति :
मन पर वेदना के बिना,
तर्कातीत, बस स्वीकार से ही सिहर कर
बोला :
'नहीं, फिर आना नहीं होगा।'

सिग्तुना (स्वीडन), 24 जून, 1955