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आखेटक / अज्ञेय

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कई बार आकर्ण तान धनु
लक्ष्य साध कर
तीर छोड़ता हूँ मैं-
कोई गिरता नहीं, किन्तु सद्य: उपलब्धि मुझे होती है :
आखेटक का रस सत्वर मुझ को मिल जाता है।

कभी-कभी पर निरुद्देश्य, निर्लक्ष्य,
तीर से रहित धनुष की प्रत्यंचा को
देता हूँ टंकार अनमना :
मेरे हाथ कुछ नहीं आता, दूर कहीं, पर
हाय! मर्म में कोई बिंध जाता है!

दिल्ली, होली, 1956