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सागर-चित्र / अज्ञेय
Kavita Kosh से
सूने उदधि की लहर
धीर बधिर :
सूने क्षितिज का आत्मलीन आलोक
अधूरा, धूसर, अन्धा :
टकराहट चट्टानों पर
थोथे थप्पड़ की
जल के :
उड़े झाग की चिनियाहट
गालों पर,
आँखों में किरकिरी रेत :
अर्थहीन मँडराते कई क्रौंच
हकलाते-से जब-तब कराहते हलके ।
यह क्षण : यह चित्र
दरिद्र ?
अ-मूल ? अमोल ?
विलीयमान ? चिर ?
नयी दिल्ली (रेस्तराँ में बैठे-बैठे), 25 अगस्त, 1958