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सरस्वती-पुत्र / अज्ञेय

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     मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त,
     खुले गले से मुखर स्वरों में
     अति प्रगल्भ गाते जाते थे राम-नाम।
     भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, अल्पक,

     निर्बाध, अयाने, नाटे, पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले।
     बाहर वह खोया-पाया, मैला-उजला
     दिन-दिन होता जाता वयस्क,

     दिन-दिन धुँधलाती आँखों से
     सुस्पष्ट देखता जाता था;
     पहचान रहा था रूप,
     पा रहा वाणी और बूझता शब्द,

     पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था :
     दिन-दिन पर उस की घिग्घी बँधती जाती थी।

देहरादून, 19 अगस्त, 1959