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स्वर-शर / अज्ञेय

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 तुम्हारे स्वर की गूँज
भरे रहे आकाश
स्वचेतन :
पर मेरा मन-
वह पहले ही है फ़कीर
अनिकेतन।
खग हो कर भी
वह नीरव तिरता है नभ से
गूँज भरे, वर दो-ऐसा कुछ तुम कर दो-
वह यों-स्वर-शर से बिंधा सदा विचरे!

भुवनेश्वर-दिल्ली, 16 जून, 1980