मर्माहत ही मिले मुझे
फिर जालिक के ही पाश काट
पानी को करते पापमुक्त
वह चले गये।
नर में ही बार-बार नारायण
मरते हैं। भरते हैं उस में
व्यथा बोध, उस का ही काम अधूरा है।
नारायण? उन का तो खाता सदा शुद्ध है, पूरा है।
दे चुके कर्मफल मुक्ति, पाप से भुक्ति,
स्वयं वह मुक्त हुए।
नारायण! नहीं! व्याध को ऐसे
मुक्तिबोध से मुक्त करो!
जिस ने जीवन में एक लक्ष्य ही जाना-
शर-सन्धान अनवरत-
उसे सन्धानी ही रहने दो!
न दो क्षमा! उस के बन्धन मत खोलो!
बँध हुआ ही वह कितना समीप है
कितना डूबा साँई की छाया में
रह-रह उठती है पुकार उस के भीतर से
शब्दहीन :
‘नारायण! नर के नारायण हे!’
मर्माहत ही मिले मुझे वह
मैं भी मर्मविद्ध यों बँधा रहूँ
कल्पान्तरतर-कल्पान्त
पुकारा करूँ नाम : नारायण हे!
बिनसर, 11 जून, 1981