भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चितवन / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:56, 11 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=क्योंकि मैं उसे जा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
क्या दिया था तुम्हारी एक चितवन ने उस एक रात
जो फिर इतनी रातों ने मुझे सही-सही समझाया नहीं?
क्या कह गयी थी बहकी अलक की ओट तुम्हारी मुस्कान एक बात
जिस का अर्थ फिर किसी प्रात की किसी भी खुली हँसी ने
बताया नहीं?
इधर मैं निःस्व हुआ, पर अभी चुभन यह सालती है
कि मैं ने तुम्हें कुछ दिया नहीं,
बार-बार हम मिले, हँसे, हम ने बातें कीं,
फिर भी यह सच है कि हम ने कुछ किया नहीं।
उधर तुम से अजस्र जो मिला, सब बटोरता रहा,
पर इसी लुब्ध भाव से कि मैं ने कुछ पाया नहीं!
दुहरा दो, दुहरा दो, तुम्हीं बता दो
उस चितवन ने क्या कहा था
जिस में तुम ही तुम थे, संसार भी डूब गया था
और मैं भी नहीं रहा था...
नयी दिल्ली, 30 जून, 1968