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तो क्या / अज्ञेय
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रात में
शहर की सूनी सड़कों पर
अनमने भटको-
तो क्या?
किसी भी आते-जाते
भाव की या किसी याद की ओट सिमटे
चेहरे पर अटको-
तो क्या?
किसी को सिटकारी दो,
किसी को दिखा कर
आह भरी, मटको;
यानी समाज की, समाज की
दिनौंधी आँख सिपाही की
आँख में कंकड-काँटे-सा खटको-
तो क्या?
यों बार-बार बेनतीजा
कभी गर्म, कभी सर्द,
हर सूरत बेपानी,
शीशे-से चटको-
तो क्या?
तो क्या?
इस सब से क्या?
लौट कर उसी द्वार
जहाँ से आत्म-निर्वासित
निकले थे, कब से
करते ख़ुद अपना ही तिरस्कार,
उसी घिसी देहरी पर
फिर सिर पटको-
तो क्या?
ग्वालियर, 3 सितम्बर, 1968