भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तो क्या / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:55, 11 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=क्योंकि मैं उसे जा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
रात में
शहर की सूनी सड़कों पर
अनमने भटको-
तो क्या?

किसी भी आते-जाते
भाव की या किसी याद की ओट सिमटे
चेहरे पर अटको-
तो क्या?

किसी को सिटकारी दो,
किसी को दिखा कर
आह भरी, मटको;
यानी समाज की, समाज की
दिनौंधी आँख सिपाही की
आँख में कंकड-काँटे-सा खटको-
तो क्या?

यों बार-बार बेनतीजा
कभी गर्म, कभी सर्द,
हर सूरत बेपानी,
शीशे-से चटको-
तो क्या?

तो क्या?
इस सब से क्या?
लौट कर उसी द्वार
जहाँ से आत्म-निर्वासित
निकले थे, कब से
करते ख़ुद अपना ही तिरस्कार,
उसी घिसी देहरी पर
फिर सिर पटको-
तो क्या?

ग्वालियर, 3 सितम्बर, 1968