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गूंगे बेटे बहरी बहुएँ / लालित्य ललित

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पिता नहीं रहे
बूढ़ी मां लाचार है
तीन महीनों के
अंतराल पर टिकी है
हर बेटे के यहां
पर बहुओं की निगाहें
ससुर की ‘नकदी’ जो
मां के नाम जमा है
वहीं अटकी हैं
सब अपने-अपने
चक्कर में हैं
मां जानती है
मां बहू की मीठी कूक
पहचानती है
पहचानती है घर में
खटके बर्तनों की टकराहट
बूढ़ी मां कई-कई बार
अकेले में अपने पति को -
याद करती है
जो उसे ब्याह कर लाया था
इस दहलीज पर
आज वही दहलीज़
दरारदार बन चुकी है
बहुओं के गले में हारों की -
चमक और हाथों में
सोने की चूड़ियां तो हैं
मगर बीमार
लाचार बूढ़ी सास के लिए
रोटी और दाल मयस्सर -
नहीं मां को बुख़ार में
चावल भाता नहीं
बेटे गूंगे बन चुके हैं
उनकी डोर
बहरी पत्नियों के हाथ में है
दीवार पर चौधरी
काका की तस्वीर
देख बूढ़ी अम्मा रो पड़ती
हैं क्यों छोड़ गये मुझे अकेला
इस मझधार में
बूढ़ी अम्मा की तकलीफ़
कोई नहीं जान पाया
एक दिन बूढ़ी अम्मा चली गईं
बाबूजी के पास
फिक्स डिपॉजिट बिखर गया
बहुओं के हाथ में चूडियां
और बेटों ने आंगन में
मोटर साईकिलें खड़ी कर लीं