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खुद की तलाश / लालित्य ललित

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सड़कों पर उतरे
तारकोल की परतें
कितनी बार रोड-रोलर
गुज़ारा गया
हर बार बनाई गई
नई सड़कें
कितनी बार कमीशन दिया गया
ठेकेदार निश्चिंत हैं
बीस प्रतिशत टका देते हैं
अगला काम सुनिश्चित कर लेते हैं
इसी तरह
स्त्रियां सुबह से शाम तक
नौनिहालों को बड़ा करती हैं
उनमें संस्कार भरती हैं
बड़े हो कर वे कर्णधार
पल्लू वालियों की ज़ुल्फों में
धंसे मां की ममता भूल जाते हैं
झिड़की और सुनाते हैं
बीस प्रतिशत के हिसाब से
मां और बाप
हल्की आंच के वे कोयले हैं
जिन्हें कुछ समय बाद
बुझ जाना है
लेकिन बहू-बेटे को
इसकी कोई फ़िक्र नहीं
वे तो नये जहाज़ के वे सिपाही हैं
जिन्हें जहाज़ चलाना नहीं आता
बल्कि उसकी सवारी में
आनंद मिलता है
ऐसे असंख्य बेटे-बहू आज -
हर क्षेत्र में अपने में व्यस्त हैं
सड़कों पर सड़कें
कोलतार की परतें
परतों में छुपी है मूल सड़क
जिसका अपना कोई नामो-निशां -
नहीं ऐेसे ही ताक रही है
बुजुर्ग मां कभी वो भी जवान थी
उसके भी सपने थे
सपने दर सपने थे पर आई
चेहरे पर झुर्रियां हैं
झुर्रिया-दर-झुर्रियां हैं
हर बेटे-बहू के जीवन में भी
आएगा यह पल
जिसे भुला बैठै हैं वो बुजु़र्ग मां
देर तलक देखती रही
तारकोल भरी सड़कें
और तलाशती रही ख़ुद को !