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नया करती हुई / नंदकिशोर आचार्य

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बाँज का घना जंगल
दोपहर सूनी।

कब से झरे सूखे हुए पत्तों पर
पक कर नये झरते
पात की खड़कनः
जंगल की खामोशी को
नया करती हुई।

(1983)