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मन की जमीन पर / संगीता गुप्ता

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मन की ज़मीन पर
हर सुबह
नागफनी के जंगल
उग आते हैं

अपनी पूरी ताक़त से
सूबह से रात गये तक
जंगल काटती रहती हूँ

जंगल के साफ़ होने तक
एक नीम - बेहोषी
मुझ पर छा जाती हैं
सो जाती हूँ
एक मज़दूर की नींद

अगली सुबह
आँख खुलने पर
एक और जंगल
मुँह चिड़ाता मिलता है मुझे

हारती नहीं मैं भी
पूरी ताक़त से
फिर काटने लगती हूँ
नया जंगल

यह सिलसिला
जारी है
जारी रहे
मैं तब तक
काटती रहूँगी जंगल
जब तक क़ायम रहेगा
जंगल उगने के सिलसिला

मैं नहीं
एक दिन हारेगा
ज़रुर जंगल