भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बानि सौं सहित सुबरन मुँह रहैं जहाँ / सेनापति
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:42, 31 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सेनापति }} Category:पद <poem> बानि सौं सहि...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बानि सौं सहित सुबरन मुँह रहैं जहाँ,
धरत बहुत भाँति अरथ समाज को.
संख्या करि लीजै अलंकार हैं अधिक यामैं,
राखौ मति ऊपर सरस ऐसे साज को
सुनौ महाजन! चोरी होति चार चरन की,
तातें सेनापति कहै तजि उर लाज को.
लीजियो बचाय ज्यों चुरावै नाहिं कोउ, सौंपी
वित्त की सी थाती में कवित्तन के ब्याज को.