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पुलक / कविता वाचक्नवी

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पुलक


छिटकी पड़तीं
उमड़ बदलियाँ
अंबर के आँगन में
ज्यों नचती हों
स्वर्ग-सुघर की
कामिनियाँ
कानन में।
टप-टप टपतीं
टपक रहीं
बूँदें
शोभित - चमकीली
छन-छन करतीं
छनकर आतीं
पत्तों से
आँचल में।
तरु-तल में
भीगे-भीगे से
चहक रहे
रज-बालू
पीते
सौंधापन आपस का
पुलकित मन-पागल में।

ढका
मेघ ने
नभ को पूरा,
दिनकर की
निष्प्रभ
प्रभुता है।
उजलापन
छाया से मिलकर
पुलकित होता
कुछ धुमिल
बूँदों की फिसलन
बहका जाती
कोमल मृदु-छवि
निरख मुदित-दृग्‌
तड़ित तकें बादल में।