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कहा-अनकहा / विमल राजस्थानी

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जीवन भर जिसपर चला-गला, वह पथ अनजान रहा
मंजिल तक साथ रही छाया, उसने भी कुछ न कहा

काँटों की चुभन मिली
न कली काँपी, न सुमन सिहरे
तारों की भरी न आँख
न मेघों के ही अश्रु झरे
उर का आतप बन अग्नि प्रखर, सूरज की ओर बहा
जीवन पर जिसपर चला-गला, वह पथ अनजान रहा

दिल की धड़कन काँपी-सिहरी
धमनियाँ निचुड़, रोयीं
साँसों की गति लड़खड़ा गयी
मन ने सुध-बुध खोयी
सपनों का महल ताश के पत्तों के घर सदृश ढहा
जीवन भर जिसपर चला-गला, वह पथ अनजान रहा

कुविचार और सुविचारों का
संघर्ष-समर झेला
दुनिया तो सदा लगी मुझको-
ज्यों दो दिन का मेला
वीरता चरम सीमा पर थी, हँस-हँस कर वार सहा
जीवन भर जिसपर चला-गला, वह पथ अनजान रहा

जब अन्तिम साँस समर्पण की
मुद्रा में नत होगी
लपटों के सम्मुख, पंच-तत्व
की देह प्रणत होगी
उस दिन सुन लेंगे प्राण शेष जो था अनकहा-कहा
जीवन भर जिसपर चला-गला, वह पथ अनजान रहा