रचनाकार: विनोद चन्द्र नायक(1919-2008)
जन्मस्थान: तेलीपाली, सुंदरगढ़
कविता संग्रह: हेमंती(1933), नीलचंद्रर उपत्यका(1951), सात तारार दीप(1955), नंदादेवी(1961), इलावृत्त (1968), सरीसृप(1970), पोहला द्वीपर उपकथा(1973), अन्य एक असरपी(1978)
(1)
सुदूर  ताल -वन  आकाश को  सुनाते हैं
माटी की कविता
जिसके दिगंत  में मिलते ग्राम-पथ  की
खेत के बाद खेत, काशतंडी के फूल और
खसखस  की  सर्पिल झाड़ियाँ
झाड़ियाँ  के पीछे जंगल
जंगल पार करने पर
दिखाई देता है ननिहाल का गाँव
(2)
पथ  के इस  ओर बोई अरहर और चनें
आगे चरागाह, गायों के झुंड
सेमल शाखा पर रोती कबूतरी
उठ पूत उठ
पूरी हो गई कटोरी
पास में कुमुद की पोखरी, स्नान घाट
(3)
नववधू  पत्थर पर घिसती पाँव
धोती मेथी से खुले बाल
ननद उसकी ज्यादा होशियार
गालों पर हल्दी लगाकर
देखती चेहरा हिलते पानी में।
(४)
पोई साग और कुम्हड़े की लता
छूने लगी  घर का माथा
सजना  की शाखाओं से
जमीं  पर गिरते कच्चे फूल
बाड़ पर फैली अपराजिता की लता
(5)
इस पथ  से लौटती गाँव की बहू
हर सुबह स्नान के बाद अकेली
पथ पर बनाती सजल पांव के निशान
माँ कहकर बुलाने का होता है मन
धरती जैसी सहनशील, वह असीम करुणावती
आँखों में उसकी सैकड़ों युगों की वेदना-झलकती 
(6)
इस पथ  रस्ते से जाते गाँव के किशोर विदेश
इस पथ पर  व्याकुल नववधू करती लौटने का इन्तजार अशेष
कौनसा सन्देश लेकर आया
यह लालची कौआ, पता नहीं
यह  ग्रामदेवी, उसकी  व्यथा को समझती है या नहीं, हाय !
(7)
इस पथ से गांव में आई थी वधु
बाँटते हुए  हृदय  की ममता- मुखर मधु
पुत्र, पुत्री, नाति-  नातिनों  में खोकर
इस पथ से लौटी श्मशान
आने वालों का  साक्षी बना था यह पथ
और जाने वालों का दोस्त
(8)
चंद्रमा  इस पथ  पर बिखेरता रोशनी
कुमारियों के सम्मिलित स्वर में
सुनाई पड़ता मधुर संगीत, आह !
धान के खेतों में रात्रि-शयन के लिए जाता तरूण कृषक
मैदानों को  पार कर भाग रही हैं, देखो !
बादलों की छाया
(9)
बचपन की यादें  छोड़कर इस पथ से
गांव की लड़की अपने ससुराल जाती 
माँ के पल्लू में बाढ़ रचाती
जिद्दी आंखों के अश्रु-धार
इसी पथ के स्मृति पटल पर अंकित होती है
कई जन्मों की कथा
उसके रोने से सीना फट जाता है
 विधाता  ने यह रिवाज क्यों बनाया,कहो ?।
(10)
हरी घाटियों  में नटखट बच्चे की तरह
यह रास्ता घूमता है
नील नभ में जैसे
मनोरम तारा-पुंज
गांव के झरने  से शुरु होकर
यह पथ जाता है  स्वर्ग की सीमा
सन्यासी की तरह अपना करुणाधन बाँटते।
(11)
वंदना करता हूँ तुम्हारी, हे  ग्रामपथ !
बचपन के  मेरे प्रिय साथी
तुम्हें अयुत दंडवत
तरुण दिनों की  हंसी-मजाक
तुम्हारे  कर्पूर रेणु
उसके बांस वन वितान में मैं आज
क्लांत, 
केवल  दिन गुजारने में  व्यस्त
(12)
भिक्षुक प्राण मेरा पीड़ा देता लगातार
पाथेय विहीन पथिक मैं
लगती अब यह यात्रा कष्टकर
लोई और रूई से सफ़ेद करते तुम्हारा तन
राम नाम सत्य मंत्र के साथ जाऊँगा
तुम्हारे किनारे के  श्मशान
कब कहो,कब कहो ?